इक जरा छींक ही दो तुम- गुलज़ार  

Posted by: कुश in

पिछली पोस्ट मीं ही मैने बात की थी की किस तरह गुलज़ार साहब भगवान से फरमाते है.. और एक नज़्म का ज़िक्र किया था.. इक ज़रा छींक ही दो तुम.. लीजिए पेश है गुलज़ार साहब की एक बेजोड़ नज़्म....



चिपचिपे दूध से नहलाते हैं
आंगन में खड़ा कर के तुम्हें ।
शहद भी, तेल भी, हल्दी भी, ना जाने क्या क्या
घोल के सर पे लुंढाते हैं गिलसियां भर के
औरतें गाती हैं जब तीव्र सुरों में मिल कर
पांव पर पांव लगाये खड़े रहते हो
इक पथरायी सी मुस्कान लिये
बुत नहीं हो तो परेशानी तो होती होगी ।
जब धुआं देता, लगातार पुजारी
घी जलाता है कई तरह के छौंके देकर
इक जरा छींक ही दो तुम,
तो यकीं आए कि सब देख रहे हो ।

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This entry was posted on Friday, April 25, 2008 and is filed under . You can leave a response and follow any responses to this entry through the Subscribe to: Post Comments (Atom) .

3 comments

कुछ भाई बडे बहाने से भगवान के दर्शन करना चहाते हो,गुलजार जी की बात ही नयारी हे,आप का ध्न्यवाद भी भगवान से छिकंवा रहे हॊ

मेरी पसंदीदा कविता है ये। पहली बार जब इसे एक पत्रिका में पढ़ा था तो तुरंत चिट्ठे पर चढ़ाया भी था।
http://ek-shaam-mere-naam.blogspot.com/2006/10/blog-post_116068439055072139.html

इसे फिर पढ़कर बेहस अच्छा लगा

बेहतरीन नज्म है ये .....लगता है कि बचपन से किसी एक कोने में खडी लंबी-दबी हसरत यकायक बाहर छलक आई हो।

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