पिछली
चिपचिपे दूध से नहलाते हैं
आंगन में खड़ा कर के तुम्हें ।
शहद भी, तेल भी, हल्दी भी, ना जाने क्या क्या
घोल के सर पे लुंढाते हैं गिलसियां भर के
औरतें गाती हैं जब तीव्र सुरों में मिल कर
पांव पर पांव लगाये खड़े रहते हो
इक पथरायी सी मुस्कान लिये
बुत नहीं हो तो परेशानी तो होती होगी ।
जब धुआं देता, लगातार पुजारी
घी जलाता है कई तरह के छौंके देकर
इक जरा छींक ही दो तुम,
तो यकीं आए कि सब देख रहे हो ।
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on Friday, April 25, 2008
and is filed under
नज़्म
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कुछ भाई बडे बहाने से भगवान के दर्शन करना चहाते हो,गुलजार जी की बात ही नयारी हे,आप का ध्न्यवाद भी भगवान से छिकंवा रहे हॊ
मेरी पसंदीदा कविता है ये। पहली बार जब इसे एक पत्रिका में पढ़ा था तो तुरंत चिट्ठे पर चढ़ाया भी था।
http://ek-shaam-mere-naam.blogspot.com/2006/10/blog-post_116068439055072139.html
इसे फिर पढ़कर बेहस अच्छा लगा
बेहतरीन नज्म है ये .....लगता है कि बचपन से किसी एक कोने में खडी लंबी-दबी हसरत यकायक बाहर छलक आई हो।