बस तेरा नाम ही मुकम्मल है - गुलज़ार  

Posted by: कुश in

गुलज़ार साहब की नज़मो की बात करे तो एक से बढ़कर एक मोती मिलेंगे उनके पास.. अगली पोस्ट में हम रेनकोट फिल्म से उनकी नज़्म की चर्चा करेंगे. .पर अभी आपके बीच बाँटना चाहूँगा .. गुलज़ार साहब की लिखी एक रूहानी नज़्म.. अपने महबूब की तारीफ़ इस अंदाज़ में शायद ही किसनी ने की होगी



नज़्म उलझी हुई है सीने में
मिसरे अटके हुए हैं होठों पर
उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह
लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं
कब से बैठा हुआ हूँ मैं जानम
सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा

बस तेरा नाम ही मुकम्मल है
इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी
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This entry was posted on Friday, April 25, 2008 and is filed under . You can leave a response and follow any responses to this entry through the Subscribe to: Post Comments (Atom) .

4 comments

बस तेरा नाम ही मुकम्मल है
इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी
सच जिन्दगी मे एक ऎसा मुकाम भी आता हे जब यह गजल एक सच सी लगती हे. धन्यवाद कुश भाई

u r doing a great job..at least i could see my favourite lines in hindi on net by gulzar...

Gulzar sahab ki jitni tareef ki jaye kam hai. meri to kamjori hain ye. Aur ab isliye aapka blog bhi.
Bahut sundar prayas
Badhai

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