साँस लेना भी कैसी आदत है..- गुलज़ार  

Posted by: कुश in

साँस लेना भी कैसी आदत है.. गुलज़ार साहब की एक और लिखावट.. ज़िंदगी की गहरी सच्चाई कितने कम शब्दो में अपनी इस नज़्म में कही है उन्होने.. ज़रा गौर फरमाइए


साँस लेना भी कैसी आदत है
जीये जाना भी क्या रवायत है
कोई आहट नहीं बदन में कहीं
कोई साया नहीं है आँखों में
पाँव बेहिस हैं, चलते जाते हैं
इक सफ़र है जो बहता रहता है
कितने बरसों से, कितनी सदियों से
जिये जाते हैं, जिये जाते हैं

आदतें भी अजीब होती हैं
---------------

This entry was posted on Friday, April 25, 2008 and is filed under . You can leave a response and follow any responses to this entry through the Subscribe to: Post Comments (Atom) .

2 comments

गुलज़ार साहब को पढ़ना
साँस लेने की तरह है.
इसमें ज़िंदगी है !
=================
बेहतरीन नज़्म .... शुक्रिया.

डा. चंद्रकुमार जैन

ham Gulzaar sahab ko padh sake..thanks..for posting..

aadatein bhi ajeeb hoti hai...

shukriya

Post a Comment