लबों से चूम लो  

Posted by: Morpankh in

गुलज़ार साहब के बेहतरीन अंदाज़ को, उतने ही बेहतरीन संगीत और आवाज़ से सजाया गया है इस गीत को!!
इस सब के साथ सोने पर सुहागा, रेखा... बेहद खूबसूरत बिल्कुल इस गीत जैसी...
और इस सब के साथ भी कहीं कमी थी तो पूरी हो गयी खुद गुलज़ार साहब की आवाज़ से....

लबों
से चूम लो, आखों से थाम लो मुझको
तुम्ही से जन्मूँ तो शायद मुझे पनाह मिले

दो सोंधे सोंधे से जिस्म ,
जिस वक़्त एक मुट्ठी में सो रहे थे
बता तो उस वक़्त मैं कहाँ था?
बता तो उस वक़्त तू कहाँ थी?

मैं आरज़ू की तपिश में पिघल रही थी कहीं
तुम्हारे जिस्म से होकर निकल रही थी कहीं
बड़े हसीन थे जो राह में गुनाह मिले
तुम्ही से जन्मूँ तो शायद .....

तुम्हारी लौ को पकड़ कर जलने की आरज़ू में
जब अपने ही आप से लिपट कर सुलग रहा था
बता तो उस वक़्त मैं कहाँ था?
बता तो उस वक़्त तू कहाँ थी?

तुम्हारी आखों के साहिल से दूर दूर कहीं
मैं ढूँढती थी मिले खुश्बुओं का नूर कहीं
वहीं रुकी हूँ जहाँ से तुम्हारी राह मिले
तुम्ही से जन्मूँ तो शायद....



फिल्म - आस्था
संगीत - सारंगदेव
गायिका - श्री राधा बनरजी

किताबे झांकती है बंद अलमारी के शीशों से  

Posted by: रंजू भाटिया

कंप्युटर युग है .हाथ से किताब ,डायरी -पेन का रिश्ता एक दास्तान एक किस्सा बनता जा रहा है धीरे धीरे ..कभी कुछ कोंधा जहन में तो फट से कहीं लिख लिया करते थे ..और अब लगता है कि की -बोर्ड पर लिखो प्रिंट आउट ले लो .इ बुक खोलो और पढ़ लो. ..किताबे सिर्फ़ इल्म का जरिए नही मुलाकात का बहाना भी थी ..दिल का सकून और सूखे हुए गुलाब के फूलो की इश्क की दास्तान भी ... इसी बात को गुलजार जी ने देखिये कितनी खूबसूरती से अपनी इक नज्म में ढाला है .किताब से जुड़ी हर बात उन्होंने इस नज्म में कही है ...

किताबे झांकती है बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती है
महीनों अब मुलाकाते नही होती
जो शामें इनकी सोहबत में कटा करती थी अब अक्सर
गुजर जाती है कंप्युटर के परदों पर
बड़ी बेचैन रहती है किताबे ....
इन्हे अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती है ..

जो कदरें वो सुनाती थी
की जिन के सैल कभी मरते थे
वो कदरें अब नज़र आती नही घर में
जो रिश्ते वो सुनाती थी
वह सारे उधडे उधडे हैं
कोई सफहा पलटता हूँ तो एक सिसकी निकलती है
कई लफ्जों के माने गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंडे लगते हैं वो सब अल्फाज़
जिन पर अब कोई माने नही उगते
बहुत सी इसतलाहें हैं
जो मिटटी के सिकूरों की तरह बिखरी पड़ी है
गिलासों ने उन्हें मतरुक कर डाला

जुबान पर जायका आता था जो सफहे पलटने का
अब उंगली क्लिक करने से बस इक झपकी गुजरती है
बहुत कुछ तह बा तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो जाती राब्ता था ,कट गया है
कभी सीने पर रख कर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर
नीम सजदे में पढ़ा करते थे ,छुते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मँगाने ,गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा
वो शायद अब नही होंगे !!

रूह देखी है ,कभी रूह को महसूस किया है ?  

Posted by: रंजू भाटिया

गुलजार का लेखन क्यूँ इतना दिल के करीब लगता है ..क्यूंकि वह आम भाषा में लिखा होता है ..रूह से लिखा हुआ ..उनकी लिखी एक नज्म कितना कुछ कह जाती हैं ...

रूह देखी है कभी रूह को महसूस किया है ?
जागते जीते हुए दुधिया कोहरे से लिपट कर
साँस लेते हुए इस कोहरे को महसूस किया है ?

या शिकारे में किसी झील पे जब रात बसर हो
और पानी के छपाकों में बजा करती हूँ ट लियाँ
सुबकियां लेती हवाओं के वह बेन सुने हैं ?

चोदहवीं रात के बर्फाब से इस चाँद को जब
ढेर से साए पकड़ने के लिए भागते हैं
तुमने साहिल पे खड़े गिरजे की दीवार से लग कर
अपनी गहनाती हुई कोख को महसूस किया है ?

जिस्म सौ बार जले फ़िर वही मिटटी का ढेला
रूह एक बार जेलेगी तो वह कुंदन होगी

रूह देखी है ,कभी रूह को महसूस किया है ?

गुलज़ार साहब का लिखा एक और दिलकश गीत  

Posted by: कुश in

आइए आज सुनते है गुलज़ार साहब का लिखा एक और बेहतरीन गीत.. फिल्म है 'झूम बराबर झूम' हालाँकि शाद अली की पिछली दो फ़िल्मे जिनके गीत गुलज़ार साहब ने लिखे थे, 'साथिया' और 'बंटी और बबली' के गीत बहुत हिट हुए थे.. पर 'झूम बराबर झूम' के संगीत ने निराश किया.. मगर गुलज़ार साहब वहा भी अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे.. मसलन इस फिल्म का टाइटल सॉंग कुछ यू शुरू होता है..

ओ बीच बाज़ारी दंगे लग गये, दो तल्वारी अखियों के, मखना..
ओ जान कटे के जिगर कटे अब इन दो धारी अखियों से, मखना...

आज चाँदनी कुटेंगे
आसमान को लूटेंगे..
चल धुआ उड़ा के झूम...

इसी गीत में कुछ पंक्तिया तो कमाल लिखी है गुलज़ार साहब ने जैसे देखिए..

यह चाँद का चिकना साबुन कुछ देर में गल जाएगा ...

अब ये देखिए क्या ग़ज़ब ढाया है गुलज़ार साहब ने..
मकई की रोटी गूड रख के, मिसरी से मीठे लब चख के
तंदूर जलाके झूम झूम....

अब बताइए तंदूर जलाके भी झूमने की बात की जा रही है.. कहने का मतलब है की रोज़मर्रा के जो शब्द है.. उन्हे भी कितनी खूबसूरती से पिरोया है..गुलज़ार साहब ने..

खैर मैं बात करता हू उस गाने की जो मैं आज आपको सुनाने जा रहा हू.. ये गीत भी इसी फिल्म का है 'बोल ना हल्के हल्के' पूरी फिल्म में यही एक गीत संपूर्ण नज़र आता है इसलिए इसके बोल के साथ साथ में यहा वीडियो भी दे रहा हू.. क्योंकि जीतने अच्छे बोल लिखे है गुलज़ार साहब ने शंकर-एहसान- लॉय ने भी पूरी सिद्दत से इसमे संगीत दिया है.. और उतनी मधुरता घोली है राहत फ़तेह अली ख़ान और महालक्ष्मी अय्यर ने अपनी आवाज़ देकर.. और शाद अली ने भी इस गीत को बहुत ही सुंदर तरीके से फिल्माया है.. अब मैं कितना सही हू.. ये तो आप ये गाना देखकर ही बताइए...




धागे तोड़ लाओ चांदनी से नूर के
घूंघट ही बना लो रौशनी से नूर के
शरमा गयी तो आगोश में लो
सांसों से उलझी रहें मेरी सांसें

बोल ना हल्के हल्के
बोल ना हल्के हल्के

आ नींद का सौदा करें
इक ख्वाब दें इक ख्वाब लें
इक ख्वाब तो आन्खों में है
इक चांद तेरे तकिये तले

कितने दिनों से ये आसमां भी
सोया नही है, इसको सुला दें

बोल ना हल्के हल्के
बोल ना हल्के हल्के

उम्रे लगी कहते हुये
दो लफ़्ज़ थे एक बात थी
वो इक दिन सौ साल का
सौ साल की वो रात थी

ऐसा लगे जो चुपचाप दोनों
पल पल में पूरी सदियां बिता दें

बोल ना हल्के हल्के
बोल ना हल्के हल्के

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गुलज़ार साहब की नज्मों में sound का कमाल  

Posted by: Piyush k Mishra

आइए आज बात करते हैं गुलज़ार साब के गीतों में साउंड के कमाल की.अक्सर कई गीतों में गुलज़ार साब ने ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो श्रोता को चकित कर देते हैं.जैसे की उन्होने कोई जाल बुना हो और हम उसमें बहुत आसानी से फँस जाते हैं.दो अलग अलग शब्द जिनका साउंड बिल्कुल एक तरह होता है और वो प्रयोग भी इस तरह किए जा सकते हैं की कुछ अच्छा ही अर्थ निकले गीत का...गुलज़ार साब ने अक्सर ही ऐसा किया है.इसे हम गुलज़ार का तिलिस्म भी कह सकते हैं.

अब खट्टा मीठा फिल्म के एक गीत को लीजिए जिसमें वो कहते हैं-
तुमसे मिला था प्यार अच्छे नसीब थे
हम उन दिनों अमीर थे जब तुम करीब थे

चलते फिरते अगर ये गीत सुना जाए तो कोई आश्चर्या नहीं होगा की करीब को ग़रीब सुन लिया जाए.ये ज़रूर है की इसका अर्थ थोड़ा कमज़ोर हो जाता है मगर ये तो इंसान की फ़ितरत है की जब अमीर शब्द आता है हम खुद बा खुद मान लेते हैं की अब ग़रीब आएगा और उसी मानसिक स्थिति में करीब को ग़रीब सुन भी लेते हैं.
मरासिम एलबम की एक ग़ज़ल है -

हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते.....

इसके बीच एक शेर आता है-
शहड़ जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा
जाने वालों के लिए दिल नहीं थोड़ा करते
कितना आसान है दूसरे मिसरे में थोड़ा को तोड़ा सुन लेना.और उसका मतलब भी बिल्कुल सटीक बैठता है.मगर यही जादू है गुलज़ार साब की कलम का.साउंड का कमाल.
इसी एलबम की एक दूसरी ग़ज़ल है-
शाम से आँख में नमी सी है
आज फिर आपकी कमी सी है

इसके बीच एक शेर कुछ यूँ आता है-
कोई रिश्ता नहीं रहा फिर भी
एक तसलीम लाजमी सी है
दूसरे मिसरे में ना जाने क्यूँ तसलीम.तस्वीर की तरह सुनाई पड़ता है.और मेघना गुलज़ार,गुलज़ार साब की बेटी ने इसका वीडियो बनाया है उसमें भी बिल्कुल इसी जगह एक तस्वीर दिखाई जाती है.तस्वीर से मतलब बदल ज़रूर जाता है मगर बिगड़ता नहीं.

फिल्म सत्या का एक गीत है-
गीला गीला पानी...पानी सुरीला पानी
नि पा पा नि
साउंड का कितना ज़बरदस्त प्रयोग.चूँकि पात्र एक संगीतकार है तो वो बारिश की बूँदों में भी संगीत ढूँढ लेती है और इस भाव को बहुत सटीक तरीके से बयान किया है गुलज़ार साब ने.सप्तक के सुरों के द्वारा.

फिल्म जान-ए-मन का गीत है-
जाने की जाने ना
माने की माने ना
मन जाने जाने मन
पिया मन जाने ना
अब यहाँ तो कुछ कहने की ज़रूरत भी नहीं.मन जाने-जाने मन.वाह साहब.कमाल है बिल्कुल.

फिल्म झूम बराबर झूम का गीत- टिकट टू हॉलीवुड के बीच में एक पंक्ति आती है-
शहर के उस मोड़ से
जहाँ से तू पास हो
कहे मैं ज़िंदगी भर वहीं पे रूकू

यहाँ का जाल देखिए.दूसरी पंक्ति-जहाँ से तू पास हो..अगर इसे अँग्रेज़ी का पास मानें टू भी मज़ा है और हिन्दी का पास मानें टू भी मज़ा है.एक तीर दो शिकार..गुलज़ार साब की कलम दो धारी तलवार :)

और सबसे बड़ा जादू जो हमेशा सबको चकित करता है वो है फिल्म लेकिन का गीत-यारा सीलि सीलि....
इसके बीच एक पंक्ति आती है-
बाहर उजाड़ा हैं
अंदर वीराना
और ज़्यादातर लोग उजड़ा को उजाला ही सुनते हैं.अर्थ भी सही निकलता है.और मज़े की बात ये की वो सारे वेबसाइट जहाँ गानों के बोल लिखे मिलते हैं वो भी इसे उजाला ही लिखते हैं.

तो ये कमाल है गुलज़ार साब की कलम का.शब्दों के साथ साथ साउंड पर भी इतनी पकड़ है उनकी कि शब्दों के साथ जादू कर देते हैं.और मुझे यक़ीन है कि आपमें से भी कई इस तिलिस्म में फँस चुके होंगे. :)

""कुछ और नज्में ""गुलजार जी की किताब का एक परिचय ..  

Posted by: रंजू भाटिया

गुलजार नामा ...यहाँ बात हो रही उस शख्स की जिसका लिखा हर लफ्ज़ लोगो के दिलों में उतर कर बस जाता है ..उनके बारे में एक लेख में मैंने अपने ब्लॉग में लिखा ..यह अब उस से आगे की कड़ी मान ले ..आज यहाँ बात करते हैं उनकी लिखी नज्मों की जो उन्ही की लिखी कुछ और नज्मे नामक किताब से हैं .इस से पहले उनकी एक किताब आई थी एक बूंद चाँद यह किताब वह कहते हैं कि उस से आगे की कड़ी है ..इस किताब में उन्होंने अपनी लिखे को जो नाम दिए हैं वह .. ऊला., सानी ,दस्तखत ,खाके .लम्बी नज्मे और त्रिवेणी
ऊला ,सानी लिया गया है उर्दू की जुबान से यह लिखे गए शेर के दो मिसरे होते हैं जिस में पहले मिसरे को ऊला जो अपनी बात कहता है पर पूरा होता है सानी पर .. उन्ही के लफ्जों में ..इस किताब में ऊला की नज्मे उन मिसरों की तरह है जो अपने दूसरे हिस्से को तलाश करती नज़र आती है ..पर इसको देखने का नजरिया सबका अलग अलग हो सकता है .
दस्तखत हिस्से में उनकी निजी ज़िंदगी से जुड़ी हुई नज्में हैं ..खाके में जो लिखा गया है वह एक पेंटिंग ,पोट्रेट और कुछ कुछ लेंड स्केप की तरह है और उनकी लिखी त्रिवेणी के बारे में कौन नही जानता जिसके पहले दो मिसरे एक शेर की लगते हैं पर तीसरा मिसरा लगते ही उसके मायने बदल जाते हैं ..जैसे ..

इतने लोगो में ,कह दो आंखो को
इतना ऊँचा न ऐसे बोला करे

लोग मेरा नाम जान जाते हैं !!

अब इतने कम लफ्जों में इस से ज्यादा खूबसूरत बात गुलजार जी के अलावा कौन लिख सकता है ...ज़िंदगी के हर रंग को छुआ है उन्होंने अपनी कही नज्मों में गीतों में ...कुदरत के दिए हर रंग को उन्होंने इस तरह अपनी कलम से कागज में उतारा है जो हर किसी को अपना कहा और दिल के करीब लगता है इतना कुदरत से जुडाव बहुत कम रचना कार कर पाये हैं फिल्मों में भी और साहित्य में भी ..उनकी एक नज्म आज ऊला से ..

मैं कायनात में स्ययारों में भटकता था
धुएँ में धूल में उलझी हुई किरण की तरह
मैं इस जमीं पे भटकता रहा हूँ सदियों तक
गिरा है वक्त से कट कर जो लम्हा .उसकी तरह
वतन मिला तो गली के लिए भटकता रहा
गली में घर का निशाँ तलाश करता रहा बरसों
तुम्हारी रूह में अब ,जिस्म में भटकता हूँ

लबों से चूम लो आंखो से थाम लो मुझको
तुम्हारी कोख से जनमू तो फ़िर पनाह मिले ..