लबों से चूम लो  

Posted by: Morpankh in

गुलज़ार साहब के बेहतरीन अंदाज़ को, उतने ही बेहतरीन संगीत और आवाज़ से सजाया गया है इस गीत को!!
इस सब के साथ सोने पर सुहागा, रेखा... बेहद खूबसूरत बिल्कुल इस गीत जैसी...
और इस सब के साथ भी कहीं कमी थी तो पूरी हो गयी खुद गुलज़ार साहब की आवाज़ से....

लबों
से चूम लो, आखों से थाम लो मुझको
तुम्ही से जन्मूँ तो शायद मुझे पनाह मिले

दो सोंधे सोंधे से जिस्म ,
जिस वक़्त एक मुट्ठी में सो रहे थे
बता तो उस वक़्त मैं कहाँ था?
बता तो उस वक़्त तू कहाँ थी?

मैं आरज़ू की तपिश में पिघल रही थी कहीं
तुम्हारे जिस्म से होकर निकल रही थी कहीं
बड़े हसीन थे जो राह में गुनाह मिले
तुम्ही से जन्मूँ तो शायद .....

तुम्हारी लौ को पकड़ कर जलने की आरज़ू में
जब अपने ही आप से लिपट कर सुलग रहा था
बता तो उस वक़्त मैं कहाँ था?
बता तो उस वक़्त तू कहाँ थी?

तुम्हारी आखों के साहिल से दूर दूर कहीं
मैं ढूँढती थी मिले खुश्बुओं का नूर कहीं
वहीं रुकी हूँ जहाँ से तुम्हारी राह मिले
तुम्ही से जन्मूँ तो शायद....



फिल्म - आस्था
संगीत - सारंगदेव
गायिका - श्री राधा बनरजी

This entry was posted on Monday, June 23, 2008 and is filed under . You can leave a response and follow any responses to this entry through the Subscribe to: Post Comments (Atom) .

9 comments

wakai adbhut geet hai ye gulzar sahab ka...shukriya ise sunwane ke liye.

सही कहा-अद्भुत. आनन्द आ गया.

दो सोंधे सोंधे से जिस्म ,
जिस वक़्त एक मुट्ठी में सो रहे थे
बता तो उस वक़्त मैं कहाँ था?
बता तो उस वक़्त तू कहाँ थी?

इस से खूबसूरत कुछ और नही लिखा जा सकता..

मजा आ गया इतना सुरीला गीत देख और सुन कर।
शुक्रिया।

बहुत ही बेहतरीन गीत गुलजार के लिखे गीतों में से एक अनमोल है यह सुनना बहुत ही अच्छा लगा शुक्रिया

दो सोंधे सोंधे से जिस्म ,
जिस वक़्त एक मुट्ठी में सो रहे थे.......

बहुत उम्दा लिखा है। मैं तो ये कहाँ चहूँगा की

गुलज़ार साहब की नज़म सुनकर

कईयों ने तारीफ की, कुछ सोचने में लग गए के
दिल की कहानी सुनाते कहाँ से हैं,हर बार नयी नज़्म वो बनते कहाँ पे हैं।

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