सोने विच मड के  

Posted by: Manvinder


सुबह की ताजगी हो, रात की चांदनी हो, सांझ की झुरमुट हो या सूरज का ताप, उन्हें खूबसूरती से अपने लफ्जों में पिरो कर किसी भी रंग में रंगने का हुनर तो बस गुलजार साहब को ही आता है। मुहावरों के नये प्रयोग अपने आप खुलने लगते हैं उनकी कलम से। बात चाहे रस की हो या गंध की, उनके पास जा कर सभी अपना वजूद भूल कर उनके हो जाते हैं और उनकी लेखनी में रचबस जाते है। यादों और सच को वे एक नया रूप दे देते है। उदासी की बात चलती है तो बीहड़ों में उतर जाते हैं, बर्फीली पहािड़यों में रम जाते हैं। रिष्तों की बात हो वे जुलाहे से भी साझा हो जाते हैं। दिल में उठने वाले तूफान, आवेग, सुख, दुख, इच्छाएं, अनुभूतियां सब उनकी लेखनी से चल कर ऐसे आ जाते हैं जैसे कि वे हमारे पास की ही बातें हो। जैसे कि बस हमारा दुख है, हमारा सुख है। क्या क्या कहें जैसे
तुम मिले तो क्यों लगा मुझे
खुद से मुलाकात हो गइ
Zकुछ भी तो कहा नहीं मगर
जिंदगी से बात हो गई
आ न आ साथ बैठेें
जरा दरे तो
हाथ थामें रहें और ुकुछ न कहें
छू के देखो तो आखों की खामोषियों को
कितनी चुपचाप होती हैं सरगोषियां

इन पंक्तियों में दखों तो सही, प्यार की इंतहा , केयर करने की इंतहा
सोने विच मड़़ के मंतर पढ़ा के
लभ के तवीत ल्यावे नी
फड़ फड़ गले च पावे नी
ते नाले पावे जफि्फयां
प्याज कटां या चिठृठी आवे
भर जानण अिक्खयां
पिक्खयां वे पिक्खयां

This entry was posted on Saturday, July 05, 2008 . You can leave a response and follow any responses to this entry through the Subscribe to: Post Comments (Atom) .

2 comments

बात चाहे रस की हो या गंध की, उनके पास जा कर सभी अपना वजूद भूल कर उनके हो जाते हैं

बिल्कुल दुरुस्त फरमाया आपने..
शुक्रिया एक बेहतरीन पोस्ट के लिए

गुलजार की यही बाते खुबसूरत पंक्तियाँ रच देती है .अच्छा लिखा है आपने मनविंदर

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