याद किया है तुम्हे  

Posted by: Morpankh

आदतन तुमने कर दिए
आदतन हमने ऐतबार
किया
तेरी राहों में बारहा रुक कर
हमने अपना ही इंतज़ार किया

अब ना माँगेगे ज़िंदगी या रब
ये गुनाह हमने एक बार किया

हनीमून ..  

Posted by: रंजू भाटिया in ,

कल तुझे सैर करवाएंगे समन्दर से लगी गोल सड़क की
रात को हार सा लगता है समन्दर के गले में !

घोड़ा गाडी पे बहुत दूर तलक सैर करेंगे
धोडों की टापों से लगता है कि कुछ देर के राजा है हम !

गेटवे ऑफ इंडिया पे देखेंगे हम ताज महल होटल
जोड़े आते हैं विलायत से हनीमून मनाने ,
तो ठहरते हैं यही पर !

आज की रात तो फुटपाथ पे ईंट रख कर ,
गर्म कर लेते हैं बिरयानी जो ईरानी के होटल से मिली है
और इस रात मना लेंगे "हनीमून" यहीं जीने के नीचे !

सादगी और अपनी ही भाषा में यूँ सरलता से हर बात कह देते हैं गुलजार कि लगता है कोई अपनी ही बात कर
रहा है ..उनकी यह लेखन की सादगी जैसे रूह को छू लेती है ..गुलजार का लिखा आम इंसान का लिखा है सोचा है ..गेट वे ऑफ़ इंडिया पर देखेंगे ताजमहल ...सीधा सा कहना एक सपना आँखों में बुन देता है ..जिस सहजता से वे कहते हैं—‘बहुत बार सोचा यह सिंदूरी रोगन/जहाँ पे खड़ा हूँ/वहीं पे बिछा दूं/यह सूरज के ज़र्रे ज़मीं पर मिले तो/इक और आसमाँ इस ज़मीं पे बिछा दूँ/जहाँ पे मिले, वह जहाँ, जा रहा हूँ/मैं लाने वहीं आसमाँ जा रहा हूँ।’ उसी सरलता से अपनी बात को जाहिर इन पंक्तियों में कर दिया है वही सादगी इस कविता में लगी ..

कायनात  

Posted by: रंजू भाटिया in

बस चंद करोडो सालों में
सूरज की आग बुझेगी जब
और राख उडेगी सूरज से
जब कोई चाँद न डूबेगा
और कोई जमीं न उभरेगी
तब ठंडा बुझा इक कोयला सा
टुकडा ये जमीं पर घूमेगा
भटका -भटका
मद्धम खकिसत्री रौशनी में

मैं सोचता हूँ उस वक्त अगर
कागज पर लिखी एक नज्म कहीं उड़ते उड़ते
सूरज में गिरे
तो सूरज फ़िर से जलने लगे !

और यह नज्म यदि गुलजार की लिखी हो तो सारी रुकी हुई कायनात चलने लगती है ..जय हो के नारे से सारा विश्व गूंजने लगता है और एक जज्बा मोहब्बत का उनकी नज्म से उतर कर हर दिल में उतर जाता है ,इस अभिमान के साथ कि गुलजार की ऑस्कर मिलना , ऑस्कर का सम्मान है |

आओ सारे पहन लें आईने  

Posted by: रंजू भाटिया in

गुलजार के लिखे में जो सबसे अधिक पसंद आता है वह है उनकी त्रिवेणी का अंदाज़ ...चंद लफ्जों में खूबसूरती से बात कह जाना कोई आसान काम नही है ..उनके लिखे की समीक्षा करना भी आसान नहीं ..क्यों हर लफ्ज़ इन त्रिवेणी का लिखा अपनी बात अपने अंदाज़ से कहता है ....जैसे यह कुछ उनकी लिखी त्रिवेनियाँ

सामने आए मेरे देखा मुझे बात भी की
मुस्कराए भी ,पुरानी किसी पहचान की खातिर

कल का अखबार था ,बस देख लिया रख भी दिया


आओ सारे पहन लें आईने
सारे देखेंगे अपना ही चेहरा

सबको सारे हंसी लगेंगे यहाँ !


उम्र के खेल में एक तरफ़ है ये रस्साकशी
इक सिरा मुझ को दिया होता तो इक बात थी

मुझसे तगड़ा भी है और सामने आता भी नहीं


कुछ अफताब और उडे कायनात में
मैं आसमान की जटाएं खोल रहा था

वह तौलिये से गीले बाल छांट रही थी


मैं रहता इस तरफ़ हूँ यार की दीवार के लेकिन
मेरा साया अभी दीवार के उस पार गिरता है

बड़ी कच्ची सरहद एक अपने जिस्मों -जां की है



ऐसे बिखरे हैं दिन रात जैसे
मोतियों वाला हार टूट गया

तुमने मुझे पिरो के रखा था


कोने वाली सीट पर अब दो कोई और ही बैठते हैं
पिछले चंद महीनो से अब वो भी लड्ते रहते हैं

कलर्क हैं दोनों, लगता है अब शादी करने वाले हैं


इतने अरसे बाद" हेंगर "से कोट निकाला
कितना लंबा बाल मिला है 'कॉलर "पर

पिछले जाडो में पहना था ,याद आता है


नाप के वक्त भरा जाता है ,हर रेत धडी में
इक तरफ़ खाली हो जब फ़िर से उलट देते हैं उसको

उम्र जब ख़त्म हो , क्या मुझ को वो उल्टा नही सकता ?

गुलजार की बोस्की  

Posted by: रंजू भाटिया in

गुलजार जी ने बोस्की के लिए कुछ लिखा वह मुझे कल पढने को मिला ..खूबसूरत लफ्ज़ और भाव ..हमेशा की तरह गुलजार जी का अंदाजे ब्यान

वक्त को आते न जाते न गुजरते देखा
न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत
जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है

शायद आया था वो ख्वाब से दबे पांव ही
और जब आया ख्यालो को एहसास न था
आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन
मैंने चूमा था मगर वक्त को पहचाना न था

चंद तुतलाते हुए बोलो में आहट सुनी
दूध का दांत गिरा था तो भी वहां देखा
बोस्की बेटी मेरी ,चिकनी सी रेशम की डली
लिपटी लिपटाई हुई रेशम के तागों में पड़ी थी
मुझे एहसास ही नही था कि वहां वक्त पड़ा है
पालना खोल के जब मैंने उतारा था उसे बिस्तर पर
लोरी के बोलों से एक बार छुआ था उसको
बढ़ते नाखूनों में हर बार तराशा भी था

चूडियाँ चढ़ती उतरती थी कलाई पे मुसलसल
और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थी किताबें
मुझको मालूम नहीं था कि वहां वक्त लिखा है

वक्त को आते न जाते न गुजरते देखा
जमा होते हुए देखा मगर उसको मैंने
इस बरस बोस्की अठारह बरस की होगी

 

Posted by: Morpankh in

इश्क़ा इश्क़ा.... गुलज़ार साहब के खजाने से सूफ़ियाना अंदाज़े बयां... जितना सुनते हैं उतना और खो जाने को जी चाहता है. विशाल भारद्वाज ने किया संगीत; आवाज़ से सजाया रेखा भारद्वाज ने और आखों का सुकून ऋचा शर्मा का नृत्य 8 गाने और सब एक से बढ़ कर एक तराशे हुए.

- तेरे इश्क़ में

- रात की जोगन

- चिंगारी-

राहू राहू

- तेरी रज़ा

- जोगिया

- इश्क़ा इश्क़ा

" तेरी ज़ुस्तजू करते रहे , करते रहे तेरे इश्क़ में;

तेरे रूबरू बैठे हुए मरते रहे तेरे इश्क़ में;

तेरे रूबरू तेरी ज़ुस्तजू, तेरे इश्क़ में....."

"तेरे इश्क़ में तनहाईयाँ, तनहाईयाँ तेरे इश्क़ में;

हमने बहुत बहलाइयाँ, तनहाईयाँ तेरे इश्क में;

रूसे बहुत मनवाइयाँ, तनहाईयाँ.... तेरे इश्क़ में"

कल सुन रहे थे, तो एक सुकून सा मिला। यहाँ सुकून बाँटने चले आए...

जो भी सुनना चाहें और डाउनलोड करना चाहें ... यहाँ लिंक दिया है॥

http://www.mastmag.com/songs/indian-pop/?type=1&name=gulzar-%5BIshqa-ishqa%५ड

वेब दुनिया की ब्लॉग चर्चा में इस बार 'गुलज़ारनामा'  

Posted by: कुश

दोस्तो,
मुझे ये बताते जुए अत्यंत हर्ष हो रहा है की ब्लॉग गुलज़ार नामा के बारे में वेब दुनिया पर एक आलेख लिखा गया है.. गुलज़ार नामा ब्लॉग के लिए ये सम्मान की बात है की विश्व की पहली हिन्दी वेब पोर्टेल 'वेब दुनिया' में इस ब्लॉग को स्थान मिला है.. रवीन्द्र व्यास जी के द्वारा हमे इस बात का सौभाग्य प्राप्त हुआ है.. इस उपलब्धि में श्रेय जाता है 'गुलज़ार नामा' पर लिखने वाले हर योगदानकर्ता का.. इसके पाठको का, टिप्पनीदाताओ का और खुद गुलज़ार साहब का जिन्होने अपनी लेखनी की सीपी से इतने नायाब मोती दिए है की हमे उनके बारे में लिखने का मौका मिला..

मैं एक और बार रवीन्द्र जी को धन्यवाद देना चाहूँगा की उन्होने हमारे इस प्रयास को सफल बनाया..

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गुलज़ार साहब के ही शब्दो में कहे तो..

'इक बार वक़्त से लम्हा गिरा कही
वाहा दास्तान मिली लम्हा कही नही'