वेब दुनिया की ब्लॉग चर्चा में इस बार 'गुलज़ारनामा'  

Posted by: कुश

दोस्तो,
मुझे ये बताते जुए अत्यंत हर्ष हो रहा है की ब्लॉग गुलज़ार नामा के बारे में वेब दुनिया पर एक आलेख लिखा गया है.. गुलज़ार नामा ब्लॉग के लिए ये सम्मान की बात है की विश्व की पहली हिन्दी वेब पोर्टेल 'वेब दुनिया' में इस ब्लॉग को स्थान मिला है.. रवीन्द्र व्यास जी के द्वारा हमे इस बात का सौभाग्य प्राप्त हुआ है.. इस उपलब्धि में श्रेय जाता है 'गुलज़ार नामा' पर लिखने वाले हर योगदानकर्ता का.. इसके पाठको का, टिप्पनीदाताओ का और खुद गुलज़ार साहब का जिन्होने अपनी लेखनी की सीपी से इतने नायाब मोती दिए है की हमे उनके बारे में लिखने का मौका मिला..

मैं एक और बार रवीन्द्र जी को धन्यवाद देना चाहूँगा की उन्होने हमारे इस प्रयास को सफल बनाया..

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गुलज़ार साहब के ही शब्दो में कहे तो..

'इक बार वक़्त से लम्हा गिरा कही
वाहा दास्तान मिली लम्हा कही नही'

तुम्हारे साथ पूरा एक दिन बस खर्च करने की तमन्ना है !  

Posted by: रंजू भाटिया in

जिंदगी की भागम भाग और रोजी रोटी की चिंता में न जाने कितने पल यूँ ही बीत जाते हैं ...अपनों का साथ जब कम मिल पाता है तो दिल में उदासी का आलम छा जाता है ..और तब याद आ जाता है वह गाना दिल ढूढता है फ़िर वही फुर्सत के रात दिन बैठे रहें तस्वुर -ऐ -जानां किए हुए ...पर कहाँ मिल पाते हैं वह फुर्सत के पल .. गुलजार जी ने इन्ही पलों को जिंदगी की खर्ची से जब जोड़ दिया तो इतने सुंदर लफ्ज़ बिखरे कागज पर कि लगा कि एक एक शब्द सच है इसका ...

खर्ची .

मुझे खर्ची में पूरा एक दिन हर रोज़ मिलता है
मगर हर रोज़ कोई छीन लेता है ,झपट लेता है ,अंटी से


कभी खीसे से गिर पड़ता है तो गिरने कि आहट भी नही होती
खरे दिल को भी मैं खोटा समझ कर भूल जाता हूँ !

गिरेबां से पकड़ कर माँगने वाले भी मिलते हैं !
तेरी गुजरी हुई पुश्तों का कर्जा है ,
तुझे किश्तें चुकानी है -"

जबरदस्ती कोई गिरवी रख लेता है ये कह कर
अभी दो चार लम्हे खर्च करने के लिए रख ले
बकाया उम्र के खाते में लिख देते हैं ,
जब होगा हिसाब होगा

बड़ी हसरत है पूरा एक दिन इक बार मैं अपने लिए रख लूँ
तुम्हारे साथ पूरा एक दिन बस खर्च करने की तमन्ना है !

सोने विच मड के  

Posted by: Manvinder


सुबह की ताजगी हो, रात की चांदनी हो, सांझ की झुरमुट हो या सूरज का ताप, उन्हें खूबसूरती से अपने लफ्जों में पिरो कर किसी भी रंग में रंगने का हुनर तो बस गुलजार साहब को ही आता है। मुहावरों के नये प्रयोग अपने आप खुलने लगते हैं उनकी कलम से। बात चाहे रस की हो या गंध की, उनके पास जा कर सभी अपना वजूद भूल कर उनके हो जाते हैं और उनकी लेखनी में रचबस जाते है। यादों और सच को वे एक नया रूप दे देते है। उदासी की बात चलती है तो बीहड़ों में उतर जाते हैं, बर्फीली पहािड़यों में रम जाते हैं। रिष्तों की बात हो वे जुलाहे से भी साझा हो जाते हैं। दिल में उठने वाले तूफान, आवेग, सुख, दुख, इच्छाएं, अनुभूतियां सब उनकी लेखनी से चल कर ऐसे आ जाते हैं जैसे कि वे हमारे पास की ही बातें हो। जैसे कि बस हमारा दुख है, हमारा सुख है। क्या क्या कहें जैसे
तुम मिले तो क्यों लगा मुझे
खुद से मुलाकात हो गइ
Zकुछ भी तो कहा नहीं मगर
जिंदगी से बात हो गई
आ न आ साथ बैठेें
जरा दरे तो
हाथ थामें रहें और ुकुछ न कहें
छू के देखो तो आखों की खामोषियों को
कितनी चुपचाप होती हैं सरगोषियां

इन पंक्तियों में दखों तो सही, प्यार की इंतहा , केयर करने की इंतहा
सोने विच मड़़ के मंतर पढ़ा के
लभ के तवीत ल्यावे नी
फड़ फड़ गले च पावे नी
ते नाले पावे जफि्फयां
प्याज कटां या चिठृठी आवे
भर जानण अिक्खयां
पिक्खयां वे पिक्खयां

गुलजार के लफ्जों में मानसून ..  

Posted by: रंजू भाटिया in




गुलजार लफ्जों को कुछ इस तरह से बुन देते हैं कि दिल की तह तक वह लफ्ज़ पहुँच जाते हैं .मानसून को कुछ इस तरह से उन्होंने लफ्जों में बरसाया है ..मानसून वैसे ही आँख मिचोली खेल रहा है शायद गुलजार के लफ्जों से कुछ राहत मिले :)


बारिश आती है तो पानी को भी लग जाते हैं पांव ,
दरो -दीवार से टकरा कर गुजरता है गली से
और उछलता है छपाकों में ,
किसी मैच में जीते हुए लड़को की तरह !

जीत कर आते हैं जब मैच गली के लड़के
जुटे पहने हुए कैनवस के ,
उछलते हुए गेंदों की तरह ,
दरो -दीवार से टकरा के गुजरते हैं
वो पानी के छपाकों की तरह !