गुलजार की बोस्की  

Posted by: रंजू भाटिया in

गुलजार जी ने बोस्की के लिए कुछ लिखा वह मुझे कल पढने को मिला ..खूबसूरत लफ्ज़ और भाव ..हमेशा की तरह गुलजार जी का अंदाजे ब्यान

वक्त को आते न जाते न गुजरते देखा
न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत
जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है

शायद आया था वो ख्वाब से दबे पांव ही
और जब आया ख्यालो को एहसास न था
आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन
मैंने चूमा था मगर वक्त को पहचाना न था

चंद तुतलाते हुए बोलो में आहट सुनी
दूध का दांत गिरा था तो भी वहां देखा
बोस्की बेटी मेरी ,चिकनी सी रेशम की डली
लिपटी लिपटाई हुई रेशम के तागों में पड़ी थी
मुझे एहसास ही नही था कि वहां वक्त पड़ा है
पालना खोल के जब मैंने उतारा था उसे बिस्तर पर
लोरी के बोलों से एक बार छुआ था उसको
बढ़ते नाखूनों में हर बार तराशा भी था

चूडियाँ चढ़ती उतरती थी कलाई पे मुसलसल
और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थी किताबें
मुझको मालूम नहीं था कि वहां वक्त लिखा है

वक्त को आते न जाते न गुजरते देखा
जमा होते हुए देखा मगर उसको मैंने
इस बरस बोस्की अठारह बरस की होगी

This entry was posted on Thursday, February 12, 2009 and is filed under . You can leave a response and follow any responses to this entry through the Subscribe to: Post Comments (Atom) .

13 comments

बोस्की गुलज़ार साहब की बेटी का नाम है.. और इस से बढ़िया तोहफा और हो ही नही सकता था...

एक पिता, अपनी बेटी के लिये इससे सुंदर क्या कह सकता है.....!!!!!!!!!

पहले भी पढ़ चुका हूँ, दुबारा पढ़वाने का आभार

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गुलाबी कोंपलें

वाह के सिवाय क्या निकल सकता है मुंह से। सच पढ्कर दिल खुश हो गया। हम भी कभी कलम घिस लेते है अपनी बेटी के लिए।

पढ़वाने का आभार....

वाह !!! मन से निकले उदगार मन को छू लेते हैं......बहुत सुंदर.आभार.

कुश वाह के सिवा कुछ जुबान और की बोर्ड पर नही आ रहा है.
एक पिता अपनी बेटी के लिए इससे खूबसूरत तोहफा क्या दे सकता है...

विनय की तरह मैं ने इसे पहले नही पढ़ा था, और हाँ इस ब्लॉग का इतना बड़ा दीवाना हूँ की अपने ब्लॉग के ऊपर एक खास पेशकश के रूप में लगा डाला है गुलज़ार चचा को.

शुक्रिया एक बार फिर

gulzar saab ne na jaane kitne lamhon ko ikkaTTha kar ke hamare liye sanjo diya hai. unki har nazm ek boski hai.

दिलचस्प है न ....उन्होंने कुछ ओर भी लिखा है बोस्की पर कल मौका मिलते ही बांटूंगा ....

kuch arse pehle Gulzar ke online forum mein ise padha tha ..aaj ise phir padhkar utna hi achcha laga jaisa tavb laga tha.

gulzar ke bimb humesha se adbhut rahe hain

बोस्‍की के शैशव काल में राखी और गुलजार ने बोस्‍की को लेकर एक डायरी लिखी थी-संयुक्‍त रूप से। वह एक अनूठा प्रयोग था। उसे फिर पढना चाहूंगा।

गुलजार जी को पढना हमेशा ही सुखद रहा है।

इकबाल सिंह 'गुलज़ार' मेरे अत्यन्त प्रिय शायर, लेखक, कवि, निर्देशक, कहानीकार, पटकथा-लेखक, गीतकार और इन्सान हैं।
इनके ऊपर ये ब्लॉग कैसे आज तक गुम रहा मेरी नज़रों से - क़माल है।
मेरे तीन आदर्श कवियों में से एक हैं 'गुलज़ार'।
बात यहाँ 'बस' करता हूँ, वर्ना कोई सीमा नहीं रह जाएगी मेरी बकवास की गुलज़ार पर। बस ये दर्ज करना चाहूँगा कि पहली पंक्तियाँ जो बोस्की (अब मेघना गुलज़ार) के लिए उन्होंने लिखी थीं वो ये हैं -
"गुड़िया रानी बोस्की
बूँद गिरी है ओस की
बूँद का दाना मोती है
बोस्की जिसमें सोती है"
आपको बहुत बहुत आत्मीयता भरा नमस्कार क्योंकि जो गुलज़ार पर ब्लॉग लिख रहा है वो तो क़रीबी हो ही गया…
शुभेच्छाओं सहित,
शुनेच्छाओं सहित,

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